माँ-बाप का सम्मान: जीते जी खुशी का महत्व

 माँ-बाप का सम्मान: जीते जी खुशी का महत्व


"अरे भाई, बुढ़ापे का कोई इलाज नहीं होता। नब्बे पार कर चुके हैं, अब बस सेवा कीजिए," डॉक्टर ने नीरज के पिता को देखकर कहा।  


"डॉक्टर साहब, कुछ तो तरीका होगा। आजकल साइंस ने बहुत तरक्की कर ली है," नीरज ने चिंतित स्वर में पूछा।  


डॉक्टर ने धीमे स्वर में कहा, "नीरज बाबू, मैं अपनी तरफ से दुआ ही कर सकता हूँ। बस इन्हें खुश रखिए। यही सबसे बड़ी दवा है। इन्हें जो पसंद हो, लिक्विड देते रहिए।" फिर वह मुस्कुराते हुए बाहर निकल गए।  


नीरज अपने पिता की हालत को लेकर बहुत परेशान था। माँ के जाने के बाद पिता ही उसका सहारा थे। उनके बिना जीवन की कल्पना उसे असहनीय लग रही थी। बाहर हल्की बारिश हो रही थी, मानो प्रकृति भी उसकी पीड़ा में शामिल हो।  


थोड़ी देर बाद नीरज ने खुद को संभाला और पत्नी राधिका से कहा, "राधिका, आज मूंग दाल के पकौड़े और हरी चटनी बनाओ। मैं बाजार से जलेबी लेकर आता हूँ।"  


राधिका ने दाल पहले ही भिगो रखी थी, इसलिए वह तुरंत तैयारी में लग गई। कुछ देर में रसोई से पकौड़ों की खुशबू आने लगी। नीरज भी जलेबियाँ लेकर लौट आया। उसने जलेबी रसोई में रखी और पिता के पास जाकर उनका हाथ थाम लिया।  


"पापा, आज आपकी पसंद का सब कुछ लाया हूँ। थोड़ी सी जलेबी खाएँगे?" नीरज ने प्यार से पूछा।  


पिता ने हल्की मुस्कान के साथ आँखें झपकाईं और धीमी आवाज़ में बोले, "पकौड़े बन रहे हैं क्या?"  


"हाँ पापा, आपकी हर पसंद अब मेरी भी पसंद है। राधिका, जरा पकौड़े और जलेबी तो ले आओ," नीरज ने आवाज़ लगाई।  


राधिका प्लेट में पकौड़े और जलेबियाँ लेकर आई। नीरज ने पकौड़ा उठाकर पिता को दिया। "लीजिए, पापा। एक और लीजिए," उसने आग्रह किया।  


पिता ने थोड़ा खाकर कहा, "बस... अब पेट भर गया। थोड़ी सी जलेबी दे दो।"  


नीरज ने जलेबी का एक टुकड़ा उनके मुँह में डाला। पिता उसे प्यार से देख रहे थे।  


"नीरज, सदा खुश रहो, बेटा। मेरा दाना-पानी अब पूरा हो गया," पिता बोले।  


नीरज की आँखें भर आईं। "पापा, आपको तो सेंचुरी पूरी करनी है। आप मेरे तेंदुलकर हो।"  


पिता मुस्कुराए और बोले, "तेरी माँ पेवेलियन में इंतज़ार कर रही है। अगला मैच तुम्हारे बेटे के रूप में खेलूंगा। तब खूब खाऊंगा।"  


पिता की आँखें नीरज पर टिकी थीं। नीरज समझ गया कि उनके जीवन की यात्रा पूरी हो चुकी थी।  


तभी उसे याद आया कि पिता हमेशा कहते थे, "श्राद्ध पर कौआ बनकर खाने नहीं आऊंगा, जो खिलाना है अभी खिला दे।"  


यह कहानी हमें यह सिखाती है कि माँ-बाप का सम्मान उनकी जीते जी सेवा और खुशी में है। उनके साथ बिताया गया समय सबसे अनमोल होता है।  


**अगर कहानी ने आपका दिल छू लिया हो, तो इसे लाइक और शेयर जरूर करें। धन्यवाद। 🙏**

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